Tuesday, December 13, 2011

कैफ़ी आज़मी



मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता

वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता

वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता

खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता

कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं

एक ज़रा हाथ बढ़ा, दे तो पकड़ लें दामन
उसके सीने में समा जाये हमारी धड़कन
इतनी क़ुर्बत हैं तो फिर फ़ासला इतना क्यों हैं

दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई
आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं

तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता
कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता
हैं जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों हैं

किसी को क्या पता जो महफ़िलों की जान होता है
कभी होता है जब तन्हा तो कितनी देर रोता है

यह दुनिया है यहाँ होती है आसानी भी मुश्किल भी
बुरा भी ख़ूब होता है यहाँ अच्छा भी होता है

तेरी यादों के बादल से गुज़र होता है जब इसका
उदासी का परिंदा मुझसे मिलकर खूब रोता है

किसी को रिश्ते फूलों की तरह महकाए रखते हैं
कोई रिश्तों का भारी बोझ सारी उम्र ढोता है

बढ़ेगी उम्र जब उसकी तब उसका हाल पूछेंगे
अभी तो छोटा बच्चा है सुकूँ की नींद सोता है

‘ज़िया’ क्या शौक है चीज़ें पुरानी जमा करने का
ज़रा-सा दिल है दुनिया भर की यादों को संजोता है
अब तो आते हैं सभी दिल को दुखाने वाले
जाने किस राह गए नाज़ उठाने वाले

क्या गुज़रती है किसी पर यह कहाँ सोचते हैं
कितने बेदर्द हैं ये रूठ के जाने वाले

दर्द उनका कि जो फुटपाथ पे करते हैं बसर
क्या समझ पाएँगे ये राजघराने वाले

इश्क़ में पहले तो बीमार बना देते हैं
फिर पलटते ही नहीं रोग लगाने वाले

पार करता नहीं अब आग का दरिया कोई
थे कोई और जो थे डूब के जाने वाले

लाख तावीज़ बने लाख दुआएँ भी हुईं
मगर आए ही नहीं जो न थे आने वाले

तू भी मिलता है तो मतलब से ही अब मिलता है
लग गए तुझको भी सब रोग ज़माने वाले

अब वो बेलौस मोहब्बत कहाँ मिलती है ‘ज़िया’
लोग मिलते ही नहीं अब वो पुराने वाले

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा

किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा

एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा


होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िन्दगी क्या चीज़ है

उन से नज़रें क्या मिली रोशन फिजाएँ हो गईं
आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है

ख़ुलती ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शायरी
झुकती आँखों ने बताया मयकशी क्या चीज़ है

हम लबों से कह न पाये उन से हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है

निदा फ़ाज़ली




जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना

यूँ उजालों से वास्ता रखना
शम्मा के पास ही हवा रखना

घर की तामीर[1] चाहे जैसी हो
इस में रोने की जगह रखना

मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिये
अपने घर में कहीं ख़ुदा रखना

मिलना जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना

निदा फ़ाज़ली


अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये

जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं
उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये

बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये

ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये

शेरजंग गर्ग


आदमी की अजब-सी हालत है।
वहशियों में ग़ज़ब की ताक़त है॥

चन्द नंगों ने लूट ली महफ़िल,
और सकते में आज बहुमत है।

अब किसे इस चमन की चिन्ता है,
अब किसे सोचने की फुरसत है?

जिनके पैरों तले ज़मीन नहीं,
उनके सिर पर उसूल की छत है।

रेशमी शब्दजाल का पर्याय,
हर समय, हर जगह सियासत है।

वक़्त के डाकिये के हाथों में,
फिर नए इंक़लाब का ख़त है।


जब तलक ये ज़िन्दगी बाक़ी रहेगी
ज़िन्दगी में तिशनगी बाक़ी रहेगी

सूख जाएंगे जहाँ के सारे दरिया
आँसुओं की ये नदी बाक़ी रहेगी

मेह्रबाँ जब तक हवायें हैं तभी तक
इस दिए में रोशनी बाक़ी रहेगी

कौन दुनिया में मुकम्मल हो सका है
कुछ न कुछ सब में कमी बाक़ी रहेगी

आज का दिन चैन से गुज़रा, मैं खुश हूँ
जाने कब तक ये ख़ुशी बाक़ी रहेगी
जाने कितनी उड़ान बाक़ी है
इस परिन्दे में जान बाक़ी है

जितनी बँटनी थी बँट चुकी ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है

अब वो दुनिया अजीब लगती है
जिसमें अम्नो-अमान बाक़ी है

इम्तिहाँ से गुज़र के क्या देखा
इक नया इम्तिहान बाक़ी है

सर कलम होंगे कल यहाँ उनके
जिनके मुँह में ज़ुबान बाकी है

राजेश रेड्डी


ये जो ज़िन्दगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है|
कहीं इक हसीन सा ख़्वाब है कहीं जान-लेवा अज़ाब है|
[अज़ाब=दुखदाई वस्तु/वेदना]

कहीं छँव है कहीं धूप है कहीं और ही कोई रूप है,
कई चेहरे इस में छुपे हुए इक अजीब सी ये नक़ाब है|

कहीं खो दिया कहीं पा लिया कहीं रो लिया कहीं गा लिया,
कहीं छीन लेती है हर ख़ुशी कहीं मेहरबान बेहिसाब है|

कहीं आँसुओं की है दास्ताँ कहीं मुस्कुराहटों का बयाँ,
कहीं बर्क़तों की है बारिशें कहीं तिश्नगी बेहिसाब है|
[बयाँ=बताना या कहना; बर्क़त=समृद्धि; तिश्नगी=प्यास]

Sunday, December 11, 2011

क्‍यों डरें ज़िन्‍दगी में क्‍या होगा
कुछ ना होगा तो तज़रूबा होगा

हँसती आँखों में झाँक कर देखो
कोई आँसू कहीं छुपा होगा

इन दिनों ना-उम्‍मीद सा हूँ मैं
शायद उसने भी ये सुना होगा

देखकर तुमको सोचता हूँ मैं
क्‍या किसी ने तुम्‍हें छुआ होगा


हर ख़ुशी में कोई कमी-सी है
हँसती आँखों में भी नमी-सी है

दिन भी चुप चाप सर झुकाये था
रात की नब्ज़ भी थमी-सी है

किसको समझायें किसकी बात नहीं
ज़हन और दिल में फिर ठनी-सी है

ख़्वाब था या ग़ुबार था कोई
गर्द इन पलकों पे जमी-सी है

कह गए हम ये किससे दिल की बात
शहर में एक सनसनी-सी है

हसरतें राख हो गईं लेकिन
आग अब भी कहीं दबी-सी है


जावेद अख़्तर

आज मैंने अपना फिर सौदा किया
और फिर मैं दूर से देखा किया

ज़िन्‍दगी भर मेरे काम आए असूल
एक एक करके मैं उन्‍हें बेचा किया

कुछ कमी अपनी वफ़ाओं में भी थी
तुम से क्‍या कहते कि तुमने क्‍या किया

हो गई थी दिल को कुछ उम्‍मीद सी
खैर तुमने जो किया अच्‍छा किया


आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है

जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है

अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूँ है

ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अब "फ़ाकिर"
वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है


मेरे दुख की कोई दवा न करो
मुझ को मुझ से अभी जुदा न करो



नाख़ुदा को ख़ुदा कहा है तो फिर
डूब जाओ, ख़ुदा ख़ुदा न करो



ये सिखाया है दोस्ती ने हमें
दोस्त बनकर कभी वफ़ा न करो



इश्क़ है इश्क़, ये मज़ाक नहीं
चंद लम्हों में फ़ैसला न करो



आशिक़ी हो या बंदगी 'फ़ाकिर'
बे-दिली से तो इबतिदा न करो

सुदर्शन फ़ाकिर »

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले
हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले अजनबी जैसे अजनबी से मिले
हर वफ़ा एक जुर्म हो गोया दोस्त कुछ ऐसी बेरुख़ी से मिले
फूल ही फूल हम ने माँगे थे दाग़ ही दाग़ ज़िन्दगी से मिले
जिस तरह आप हम से मिलते हैं आदमी यूँ न आदमी से मिले

Saturday, December 3, 2011

कारवां गुज़र गया / गोपालदास "नीरज"

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँझ की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

सीमाब अकबराबादी

मुझसे मिलने के वो करता था बहाने कितने|
अब गुज़ारेगा मेरे साथ ज़माने कितने|

मैं गिरा था तो बहुत लोग रुके थे लेकिन,
सोचता हूँ मुझे आए थे उठाने कितने|

जिस तरह मैंने तुझे अपना बना रखा है,
सोचते होंगे यही बात न जाने कितने|

तुम नया ज़ख़्म लगाओ तुम्हें इस से क्या है,
भरने वाले हैं अभी ज़ख़्म पुराने कितने|

वसीम बरेलवी

मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा

ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे
सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा

वसीम बरेलवी

कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा

मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा

तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना रो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर जाये तो अब मिलने का ग़म होगा

समन्दर की ग़लतफ़हमी से कोई पूछ तो लेता ,
ज़मीं का हौसला क्या ऐसे तूफ़ानों से कम होगा

मोहब्बत नापने का कोई पैमाना नहीं होता ,
कहीं तू बढ़ भी सकता है, कहीं तू मुझ से कम होगा

वसीम बरेलवी


खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं


वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा
उसको मेरी प्यास की शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं

जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है ग़रूर
तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं

कोई भी दस्तक करे, आहट हो या आवाज़ दे
मेरे हाथों में मेरा घर तो है, दरवाज़ा नहीं

अपनों को अपना कहा, चाहे किसी दर्जे के हों
और अब ऐसा किया मैंने, तो शरमाया नहीं

उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी, जिनके चराग़
मैं भी कुछ होता, तो मेरा भी दिया होता नहीं

तुझसे क्या बिछड़ा, मेरी सारी हक़ीक़त खुल गयी
अब कोई मौसम मिले, तो मुझसे शरमाता नहीं

वसीम बरेलवी


आते-आते मेरा नाम सा रह गया
उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया

वो मेरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये
और मैं था कि सच बोलता रह गया

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता रह गया

Bachchan

वृक्ष हों भले खड़े,

हों घने हों बड़े,

एक पत्र छांह भी,

मांग मत, मांग मत, मांग मत,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ


तू न थकेगा कभी,

तू न रुकेगा कभी,

तू न मुड़ेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ


यह महान दृश्य है,

चल रहा मनुष्य है,

अश्रु श्वेत रक्त से,

लथपथ लथपथ लथपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ


आ रहे हैं मुझको समझाने बहुत
अक़्ल वाले कम हैं दीवाने बहुत

साक़िया हम को मुरव्वत चाहिए
शहर में हैं वरना मयखाने बहुत

क्या तग़ाफ़ुल का अजब अन्दाज़ है
जान कर बनते हैं अंजाने बहुत

हम तो दीवाने सही नासेह मगर
हमने भी देखे हैं फ़रज़ाने बहुत

आप भी आएं किसे इनकार है
आए हैं पहले भी समझाने बहुत

ये हक़ीक़्त है कि मुझ को प्यार है
इस हक़ीक़त के हैं अफ़साने बहुत

ये जिगर, ये दिल, ये नींदें, ये क़रार
इश्क़ में देने हैं नज़राने बहुत

ये दयार-ए-इश्क़ है इसमें सहर
बस्तियाँ कम कम हैं वीराने बहुत


वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे

रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे

ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे

सुना है उसको मोहब्बत दुआयें देती है
जो दिल पे चोट तो खाये मगर गिला न करे

ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
"क़तील" जान से जाये पर इल्तजा न करे

अशोक अंजुम

करे कोशिश अगर इंसान तो क्याक्या नहीं मिलता
वो उठकर चल के तो देखे जिस रस्ता नहीं मिलता !

भले ही धूप हो, कांटे हों पर चलना ही प़डता है
किसी प्यासे को घर बैठे कभी दरिया नहीं मिलता !

कहें क्या ऐसे लोगों से जो कहकर ल़डख़डाते हैं
कि हम आकाश छू लेते मगर मौका नहीं मिलता !

कमी कुछ चाल में होगी, कमी होगी इरादों में
जो कहते कामयाबी का हमें नक्शा नहीं मिलता!

हम अपने आप पर यारो भरोसा करके तो देखें
कभी भी ग़िडग़िडाने से कोई रुतबा नहीं मिलता!

Friday, December 2, 2011

वसीम बरेलवी


अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे

घर सजाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है
पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे

क़हक़हा आँख का बरताव बदल देता है
हँसनेवाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे

कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा
एक क़तरे को समुन्दर नज़र आयें कैसे