Sunday, November 11, 2012

माँ...क्या एक बार फिर मिलोगी? / अंजना भट्





तिनका तिनका जोड़ा तुमने, अपना घर बनाया तुमने
अपने तन के सुन्दर पौधे पर हम बच्चों को फूल सा सजाया तुमने
हमारे सब दुःख उठाये और हमारी खुशियों में सुख ढूँढा तुमने
हमारे लिए लोरियां गाईं और हमारे सपनों में खुद के सपने सजाये तुमने.

हम बच्चे अपनी अपनी राह चलते गये, और तुम?
तुम दूर खडीं चुपचाप अपना मीठा आर्शीवाद देतीं रहीं.
पल बीते क्षण बीते....
समय पग पग चलता रहा...अपना हिसाब लिखता रहा...और आज?

आज धीरे धीरे तुम जिन्दगी के उस मुकाम पर आ पहुंची
जहाँ तुम थकी खड़ी हो ---शरीर से भी और मन से भी.

मेरा मन मानने को तैयार नहीं, मेरा अंतर्मन सुनने को तैयार नहीं...

क्या तुम्हारे जिस्म के मिटने से सुब कुछ खत्म हो जायेगा?
क्या चली जाओगी तुम अपने प्यार की झोली समेट कर?
क्या रह जायेंगे हम तुम्हारी भोली सूरत देखने को तरसते हुए?
क्या रह जायेंगे हम तुम्हारी गोदी में छुपा अपना बचपन ढूँढते हुए?

बोलो माँ?
क्या कह जाओगी इन चंदा सूरज धरती और तारों से?
इन राह गुज़ारों से.....नदिया के बहते धारों से?
क्या कह जाओगी माँ? किसी सौंप जाओगी हमें माँ?

या फिर....? या फिर....?
बिखरा जाओगी अपना प्यार अपनी दुआएं और अपनी ममता
इस कायनात के चिरंतन समुन्दर की लहर लहर पर?

क्या इस जनम में चुन पायेंगे हम वो दुआएं?
पर वादा है माँ.....

इन सब जनमों के पार हम फिर मिलेंगे
तुम्हारी दुआएं चुन कर.
तुम्हारे प्यार से भरी झोली समेट कर, एक नया जिस्म ले कर
हम फिर मिलेंगे माँ...
जन्म जन्मान्तरों से परे...हंसते मुस्कराते.. हम फिर मिलेंगे
फिर एक नई दुनिया बसाएँगे...
इन बिखरते आंसुओं को चुन कर खुशियों में बदल देंगे
पापा, मै, तुम और बच्चे, हम फिर मिलेंगे, हमेशां साथ साथ खुश रहेंगे.

इन शब्दों को लिखते जीते जो आंसू मैने गिराये
और जो तुमने नहीं देखे,
वो आँसू तुम पर मेरा क़र्ज़ हैं माँ....

तुम्हें भी ये क़र्ज़ चुकाना होगा
इन बिखरे आँसूओं को समेट कर खुशियों में बदलना होगा
तुम्हें भी एक वाद करना होगा.....

क्या फिर से एक बार जन्म जन्मान्तरों के पार मिलोगी?
क्या फिर एक बार मुझसे लाल धागे का रिश्ता जोड़ोगी?
क्या फिर एक बार मुझे अपने तन पर सुन्दर फूल सा सजाओगी?
क्या फिर मेरी नन्हीं उंगली थामे मेरे संग-संग चलोगी?
क्या फिर मेरी वाणी पर अपना सम्मोहन बिखराओगी?
क्या फिर अपनी ममता की छाया से मेरा जीवन संवार दोगी?
क्या फिर अपनी मीठी लोरियां गा कर मुझे सुलाऔगी?
क्या फिर मुझे सजना संवरना और गुनगुनाना सिखाओगी?
क्या फिर मेरे नन्हे पंखों में ऊंची उड़ान भरोगी?

बोलो माँ? क्या फिर एक बार मिलोगी?

Monday, February 13, 2012

ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे
फरिश्ते आ के ख़्वाब मेँ हिसाब माँगने लगे

इधर किया करम किसी पे और इधर जता दिया
नमाज़ पढ़के आए और शराब माँगने लगे

सुख़नवरों ने ख़ुद बना दिया सुख़न को एक मज़ाक
ज़रा-सी दाद क्या मिली ख़िताब माँगने लगे

दिखाई जाने क्या दिया है जुगनुओं को ख़्वाब मेँ
खुली है जबसे आँख आफताब माँगने लगे
मकान की ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता

वो कमरे बंद हैं कबसे
जो 24 सीढियां जो उन तक पहुँचती थी, अब ऊपर नहीं जाती

मकान की ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता
वहाँ कमरों में, इतना याद है मुझको
खिलौने एक पुरानी टोकरी में भर के रखे थे
बहुत से तो उठाने, फेंकने, रखने में चूरा हो गए

वहाँ एक बालकनी भी थी, जहां एक बेंत का झूला लटकता था.
मेरा एक दोस्त था, तोता, वो रोज़ आता था
उसको एक हरी मिर्ची खिलाता था

उसी के सामने एक छत थी, जहाँ पर
एक मोर बैठा आसमां पर रात भर
मीठे सितारे चुगता रहता था

मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं,
वो नीचे की मंजिल पे रहते हैं
जहाँ पर पियानो रखा है, पुराने पारसी स्टाइल का
फ्रेज़र से ख़रीदा था, मगर कुछ बेसुरी आवाजें करता है
के उसकी रीड्स सारी हिल गयी हैं, सुरों के ऊपर दूसरे सुर चढ़ गए हैं

उसी मंज़िल पे एक पुश्तैनी बैठक थी
जहाँ पुरखों की तसवीरें लटकती थी
मैं सीधा करता रहता था, हवा फिर टेढा कर जाती

बहू को मूछों वाले सारे पुरखे क्लीशे [Cliche] लगते थे
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा, पुराने न्यूज़ पेपर में
उन्हें महफूज़ कर के रख दिया था
मेरा भांजा ले जाता है फिल्मो में
कभी सेट पर लगाता है, किराया मिलता है उनसे

मेरी मंज़िल पे मेरे सामने
मेहमानखाना है, मेरे पोते कभी
अमरीका से आये तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं वो जितनी बार आते
हैं, ख़ुदा जाने वही आते हैं या
हर बार कोई दूसरा आता है

वो एक कमरा जो पीछे की तरफ बंद
है, जहाँ बत्ती नहीं जलती, वहाँ एक
रोज़री रखी है, वो उससे महकता है,
वहां वो दाई रहती थी कि जिसने
तीनों बच्चों को बड़ा करने में
अपनी उम्र दे दी थी, मरी तो मैंने
दफनाया नहीं, महफूज़ करके रख दिया उसको.

और उसके बाद एक दो सीढिया हैं,
नीचे तहखाने में जाती हैं,
जहाँ ख़ामोशी रोशन है, सुकून
सोया हुआ है, बस इतनी सी पहलू में
जगह रख कर, के जब मैं सीढियों
से नीचे आऊँ तो उसी के पहलू
में बाज़ू पे सर रख कर सो जाऊँ

मकान की ऊपरी मंज़िल पर कोई नहीं रहता...

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

रहते हमारे पास तो ये टूटते जरूर
अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए

चाहा था एक फूल ने तड़पे उसी के पास
हमने खुशी के पाँवों में काँटे चुभा लिए

सुख, जैसे बादलों में नहाती हों बिजलियाँ
दुख, बिजलियों की आग में बादल नहा लिए

जब हो सकी न बात तो हमने यही किया
अपनी गजल के शेर कहीं गुनगुना लिए

अब भी किसी दराज में मिल जाएँगे तुम्हें
वो खत जो तुम्हें दे न सके लिख लिखा लिए।

सबकी बात न माना कर
खुद को भी पहचाना कर

दुनिया से लड़ना है तो
अपनी ओर निशाना कर

या तो मुझसे आकर मिल
या मुझको दीवाना कर

बारिश में औरों पर भी
अपनी छतरी ताना कर

बाहर दिल की बात न ला
दिल को भी तहखाना कर

शहरों में हलचल ही रख
मत इनको वीराना कर

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ

जिंदगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ


जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो

चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ


हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं

अपने सच्चे बाज़ुओं में इसके-उसके पर रखूँ


आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे

हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ


कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े

सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ


ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार

काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ


खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे

तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ

इस पहेली का कोई तू ही बता हल जानाँ
पार होता ही नहीं यादों का जंगल जानाँ

नींद आती है कहाँ ख़्वाब उतरते हैं कहाँ
आंखें रहती हैं तेरी याद में जल-थल जानाँ

पिछले मौसम में तेरा जिस्म छुआ था हमने
अब भी लगता है कि हाथों में है मख़मल जानाँ

मेरी साँसों को ज़रा फिर से मुअत्तर कर दे
अपनी साँसों का ज़रा भेज दे सन्दल जानाँ

मंज़िलों तक तुझे चलने को कहा है किसने
बात दो-चार क़दम की है, ज़रा चल जानाँ

ख़्वाब पलकों की मुंडेरों पे पड़े हैं बेहाल
राह ताबीर की तकते हैं ये पल-पल जानाँ
ज़िन्दगी से थकी-थकी हो क्या
तुम भी बेवज़ह जी रही हो क्या

मैं तो मुरझा गया हूँ अब के बरस
तुम कहीं अब भी खिल रही हो क्या

तुमको छूकर चमकने लगता हूँ
तुम कोई नूर की बनी हो क्या

इसकी ख़ुशबू नहीं है पहले-सी
शहर से अपने जा चुकी हो क्या

देखकर तुमको खिलने लगते हैं
तुम गुलों से भी बोलती हो क्या

आज यह शाम भीगती क्यों है
तुम कहीं छिप के रो रही हो क्या

सोचता हूँ तो सोचता यह हूँ
तुम मुझे अब भी सोचती हो क्या
कुछ लोग यहाँ मंज़िलें पाने के लिए थे
हम जैसे फ़क़त ख़ाक उड़ाने के लिए थे

तुमने जो क़िताबों के हवाले किए जानाँ
वो फूल तो बालों में सजाने के लिए थे

एक उम्र गुज़रने पे खुला राज़ यह हम पर
हम लोग किसी और ज़माने के लिए थे

मैं जाने कहाँ रख के उन्हें भूल गया हूँ
वो शेर जो बस तुमको सुनाने के लिए थे

कुछ ख़्वाहिशें बस दिल को दुखाने के लिए थीं
कुछ ख़्वाब फ़क़त नींद उड़ाने के लिए थे
रोज़ चिकचिक में सर खपायें क्या
फैसला ठीक है निभायें क्या

चश्मेनम का अजीब मौसम है
शाम,झीलें,शफ़क़,घटायें क्या

बाल बिखरे हुये, ग़रीबां चाक
आ गयीं शहर में बलायें क्या

अश्क़ झूठे हैं,ग़म भी झूठा है
बज़्मेमातम में मुस्कुरायें क्या

हो चुका हो मज़ाक तो बोलो
अपने अब मुद्दआ पे आयें क्या

ख़ाक कर दें जला के महफ़िल को
तेरे बाजू में बैठ जायें क्या

झूठ पर झूठ कब तलक वाइज़
झूठ बातों पे सर हिलायें क्या
पैसा तो ख़ुशामद में, मेरे यार बहुत है
पर क्या करूँ ये दिल मिरा खुद्दार बहुत है

इस खेल में हाँ की भी ज़रूरत नहीं होती
लहजे में लचक हो तो फिर इंकार बहुत है

रस्ते में कहीं जुल्फ़ का साया भी अता हो
ऐ वक़्त तिरे पाँव की रफ़्तार बहुत है

बेताज हुकूमत का मज़ा और है वरना
मसनद के लिए लोगों का इसरार बहुत है

मुश्किल है मगर फिर भी उलझना मिरे दिल का
है हुस्न तिरी जुल्फ़ तो ख़मदार बहुत है

अब दर्द उठा है तो ग़ज़ल भी है ज़रूरी
पहले भी हुआ करता था इस बार बहुत है

सोने के लिए क़द के बराबर ही ज़मीं बस
साए के लिए एक ही दीवार बहुत है

उसको नम्बर देके मेरी और उलझन बढ़ गई
फोन की घंटी बजी और दिल की धड़कन बढ़ गई

इस तरफ़ भी शायरी में कुछ वज़न-सा आ गया
उस तरफ़ भी चूड़ियों की और खन-खन बढ़ गई

हम ग़रीबों के घरों की वुसअतें मत पूछिए
गिर गई दीवार जितनी उतनी आँगन बढ़ गई

मशवरा औरों से लेना इश्क़ में मंहगा पड़ा
चाहतें क्या ख़ाक बढ़तीं और अनबन बढ़ गई

आप तो नाज़ुक इशारे करके बस चलते बने
दिल के शोलों पर इधर तो और छन-छन बढ़ गई

उससे कहना कि कमाई के न चक्कर में रहे
दौर अच्छा नहीं बेहतर है कि वो घर में रहे

जब तराशे गए तब उनकी हक़ीक़त उभरी
वरना कुछ रूप तो सदियों किसी पत्थर में रहे

दूरियाँ ऐसी कि दुनिया ने न देखीं न सुनीं
वो भी उससे जो मिरे घर के बराबर में रहे

वो ग़ज़ल है तो उसे छूने की ह़ाजत भी नहीं
इतना काफ़ी है मिरे शेर के पैकर में रहे

तेरे लिक्खे हुए ख़त भेज रहा हूँ तुझको
यूँ ही बेकार में क्यों दर्द तिरे सर में रहे

ज़िन्दगी इतना अगर दे तो ये काफ़ी है ’अना’
सर से चादर न हटे पाँव भी चादर में रहे
गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं

ज़िन्दा हूँ सच बोल के भी
देख के ख़ुद हैरान हूँ मैं

इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं

चेहरों के इस जंगल में
खोई हुई पहचान हूँ मैं

खूब हूँ वाकिफ़ दुनिया से
बस खुद से अनजान हूँ मैं

Monday, February 6, 2012

हवा जब तेज़ चलती है तो पत्ते टूट जाते हैं
मुसीबत के दिनों में अच्छे-अच्छे टूट जाते हैं

बहुत मजबूर हैं हम झूठ तो बोला नहीं जाता
अगर सच बोलते हैं हम तो रिश्ते टूट जाते हैं

बहुत मुश्किल सही फिर भी मिज़ाज अपना बदल लो तुम
लचक जिनमें नहीं होती तने वे टूट जाते हैं

भले ही देर से आए मगर वो वक़्त आता है
हक़ीक़त खुल ही जाती है मुखौटे टूट जाते हैं

अभी दुनिया नहीं देखी तभी वो पूछते हैं ये
किसी का दिल, किसी के ख्व़ाब कैसे टूट जाते हैं

'तुषार' इतना ही क्या कम है, तुम्हें वो देखते तो हैं
अगर कुछ रौशनी हो तो अँधेरे टूट जाते हैं
जो रिश्ते हैं हक़ीक़त में वो अब रिश्ते नहीं होते
हमें जो लगते हैं अपने वही अपने नहीं होते

कशिश होती है कुछ फूलों में ,पर ख़ुशबू नहीं होती
ये अच्छी सूरतों वाले सभी अच्छे नहीं होते

वतन की जो तरक़्क़ी है अभी तो वो अधूरी है
वो घर भी हैं, दवाई के जहाँ पैसे नहीं होते

इन्हें जो भी बनाते हैं वो हम तुम ही बनाते हैं
किसी मज़हब की साजिश में कभी बच्चे नहीं होते

सभी के पेट को रोटी, बदन पे कपड़े,सर पे छत
बहुत अच्छे हैं ये सपने मगर सच्चे नहीं होते

पसीने की सियाही से जो लिखते हैं इरादों को
'तुषार' उनके मुक़द्दर के सफ़े कोरे नहीं होते
हमेशा पास रहते हैं मगर पल-भर नहीं मिलते
बहुत चाहो जिन्हें दिल से वही अक्सर नहीं मिलते

ज़रा ये तो बताओ तुम हुनर कैसे दिखाएँ वो
यहाँ जिन बुत-तरासों को सही पत्थर नहीं मिलते

हमें ऐसा नहीं लगता यहाँ पर वार भी होगा
यहाँ के लोग हमसे तो कभी हँसकर नहीं मिलते

हमारी भी तमन्ना थी उड़ें आकाश में लेकिन
विवश होकर यही सोचा सभी को पर नहीं मिलते

ग़ज़ब का खौफ छाया है हुआ क्या हादसा यारो
घरों से आजकल बच्चे हमें बाहर नहीं मिलते

हकीकत में उन्हें पहचान अवसर की नहीं कुछ भी
जिन्होंने ये कहा अक्सर, हमें अवसर नहीं मिलते
वक़्त लग जाएगा जगाने में
लोग सोए हैं इस ज़माने में

ख्व़ाब सबके हसीन होते हैं
उम्र लगती है उनको पाने में

दुश्मनों को भी मात करते हैं
दोस्त कैसे हैं इस ज़माने में

अब जो हमदर्द बनके आए हैं
वो भी शामिल हैं घर जलाने में

लोग इतना नहीं समझ पाते
क्या बिगड़ता है मुस्कराने में

सच को सच जो 'तुषार' कहते हैं
वो ही रहते हैं अब निशाने में
मुक़द्दर आज़माना चाहते हैं
तुम्हें अपना बनाना चाहते हैं

तुम्हारे वास्ते क्या सोचते हैं
निगाहों से बताना चाहते हैं

गल़त क्या है जो हम दिल माँग बैठे
परिन्दे भी ठिकाना चाहते हैं

परिस्थितियाँ ही अक्सर रोकतीं हैं
मुहब्बत सब निभाना चाहते हैं

बहुत दिन से हैं इन आँखों में आँसू
`तुषार` अब मुस्कुराना चाहते हैं
जिनके घर आइना नहीं होता
उनको अपना पता नहीं होता

तब खुद़ा को ही याद करते हैं
जब कोई रास्ता नहीं होता

वक़्त के सब .गुलाम होते हैं
उससे कोई बड़ा नहीं होता

सोचना है दिमाग से सोचो
दिल से कुछ फ़ैसला नहीं होता

वक़्त हमको बुरा बनाता है
शख्स़ कोई बुरा नहीं होता

ज़िन्दगी भर 'तुषार' क्या रोना
उससे कुछ फ़ायदा नहीं होता
सुना है वो हमें भुलाने लगे है
तो क्या हम उन्हे याद आने लगे है

हटाए थे जो राह से दोस्तो की
तो पत्थर मेरे घर में आने लगे है

ये कहना थ उनसे मुहब्ब्त हौ मुझको
ये कहने मे मुझको ज़माने लगे है

कयामत यकीनन करीब आ गई है
"ख़ुमार" अब तो मस्ज़िद में जाने लगे है
ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत नहीं रही
जज़्बात में वो पहले-सी शिद्दत नहीं रही

सर में वो इंतज़ार का सौदा नहीं रहा
दिल पर वो धड़कनों की हुक़ूमत नहीं रही

पैहम तवाफ़े-कूचा-ए-जानाँ के दिन गए
पैरों में चलने-फिरने की ताक़त नहीं रही

चेहरे की झुर्रियों ने भयानक बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही

कमज़ोरी-ए-निगाह ने संजीदा कर दिया
जलवों से छेड़-छाड़ की आदत नहीं रही

अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई 'ख़ुमार'
अब मुझको ज़िन्दगी की ज़रूरत नहीं रही
ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं|

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं,
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं|

ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं

सच घटे या बड़े तो सच न रहे,
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं|

ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं

जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता-पता ही नहीं

धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं

कैसे अवतार कैसे पैग़म्बर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं

उसका मिल जाना क्या, न मिलना क्या
ख्वाब-दर-ख्वाब कुछ मज़ा ही नहीं

जड़ दो चांदी में चाहे सोने में,
आईना झूठ बोलता ही नहीं|

अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
‘नूर’ संसार से गया ही नहीं