Saturday, March 5, 2016


आरक्षण या क्षरण ?

आज इस बात पर चारों और बहस छिड़ी हुई है की रिजर्वेशन की नीति देश के हित में है या अहित में? सभी दलित पुरोधा और पिछड़ी जातियों के नेता जहां इस के पक्ष में हैं, अन्य जातियों के लोग इस के विरोध में हैं. 
रिजर्वेशन की नीति का समावेश हमारे संविधान में था और इसे १९७० तक के लिए रखा गया था यानी ये हमारे देश के भाग्य निर्माताओं की ज़िम्मेदारी थी की वह समाज के पिछड़े वर्ग को आगे बढ़ते उन्हें रोज़गार और शिक्षा के ऐसे अवसर देते जिससे वह समाज के अन्य वर्गों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चलते. मगर देश के शासकों ने इस पर शुरू से ही कोई ध्यान नहीं दिया. १९७० के बाद इस नीति को १९८० तक के लिए बड़ा दिया गया. १९७९ में प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करके इस सारे मसले को वोट बैंक में बदल दिया, एक ऐसे वोट बैंक की फसल खड़ी हुई जिसे मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, राम विलास पासवान जैसे नेता आज तक काट रहे हैं. इस नीति ने जिस अनीति को जन्म दिया उससे समाज का विभाजित होना सुनिश्चित होता जा रहा है. जिस समाज में योग्यता की बजाय जाति या सहानुभूति पद पाने का तरीका बन जाए वो देश कभी तरक़्क़ी नहीं कर सकता. एक शेर याद आता है--
घोड़ों को नहीं मिल रही घास
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश ...
समाज के पिछड़े वर्ग को सरकार से सहूलियतें मिलनी चाहिए और सरकार विभिन्न योजनाओं के द्वारा दे भी रही है. मगर क्या अन्य गैर अनुसूचित जातियों के गरीबों को यह सुविधाये पाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या सरकार मुफ्त शिक्षा देकर हर नागरिक को यह अवसर नहीं दे सकती की जो योग्य है वह रोज़गार पाये. 
रिज़र्वेशन पालिसी ने कितने दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों को ऊपर उठाया है यह तो मैं नहीं जान सका मगर इतना ज़रूर जानता हूँ की चाहे वह दलित चिंतक हो अथवा दलित नेता ...अपने एयरकण्डीशनड ड्राइंग रूम्स में बैठ कर अच्छा चिंतन कर लेते हैं और वोट बैंक का भी जुगाड़ कर लेते हैं. कितने दलित या पिछड़े वर्ग के नेता हैं जिन्होंने गरीब लोगों के बीच रह कर निस्वार्थ भाव से उनकी सेवा की है या उन्हें ऊपर लाने के लिए कोई बढ़िया योजना बनायी है? मायावती ने जितना सरकारी धन खर्च करके नॉएडा में पार्क बना दिया उससे हज़ारों दलितों को हुनर या शिक्षा दिलाई जा सकती थी. मुलायम सिंह के जन्मदिन पर जितना रुपया भोंडे नृत्य देखने और दिखने में हर वर्ष खर्च किया जाता है, उससे न जाने कितने पिछड़े परिवारों का भला हो सकता था. मगर ऐसा क्यों होने लगा? इन सभी की राजनैतिक दुकाने तब तक ही चलने वाली हैं जब तक ये पिछड़ा वर्ग पिछड़ा ही बना रहेगा और अशिक्षित भी....अगर ये वर्ग जागरूक हो गया तो इन नेताओं के दिन लद जाएंगे.
इस तरह की नीति का सबसे बड़ा नुक्सान देश को इस तरह होने वाला है की अब समाज का संपन्न वर्ग भी आरक्षण की मांग करने लगेगा. जाटों और पटेलों ने इस की शुरुआत भी कर दी है. इसका अंजाम एक भीषण गृह युद्ध के रूप में भी हो सकता है. जिसकी आंच पूरे देश को जला देगी. देश के बुद्धिजीवी इस मामले पर मौन बैठे हैं....
बर्बाद गुलिस्तां करने को
बस एक ही उल्लू काफी है 
हर शाख पे उल्लू बैठा है
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?